इस तरह से मुझे वे सताते रहे ||
मई निवेदन करू किस तरह से इसे ,
जिस तरह से मुझे वे सताते रहे |
तीर पर तीर बढ़ कर चलाते रहे ,
घाव पर घाव निशदिन बनाते रहे ||
प्रेम के पंथ पर हाथ मेरा पकड़ ,
साथ ले वही यह सही बात है ;
पर,नही चल सके एक डग साथ में,
रास्ता दूर से ही बताते रहे ||
पूर्ण विश्वास करते रहे हर तरह ,
स्वप्न में भी नही दोष उनको दिया ;
हम दवा मान कर चल रहे थे जिन्हें ,
पीर वो ही निरंतर बढ़ाते रहे ||
घाव कितने दिए ,ये उन्हें क्या पता ,
पीर से कुछ नही था प्रयोजन उन्हें ;
चोट जब भी दिखाई ह्रदय खोल कर ;
वे खड़े सामने मुस्कुराते रहे ||
दीप जलता रहा ज्वाल-माला पहन ,
और अंगार उर से लगाये रहा ;
मात्र आलोक से था प्रयोजन उन्हें ,
रात भर बेधड़क वे जलाते रहे ||
अब निवेदन तथा अश्रु को छोड़ कर ,
और कुछ भी नही रह सका शेष है,
अश्रु -बोझिल पलक-पात्र से रात-दिन ,
मोतियाँ हम निरंतर लुटाते रहे ||
( डा.देवी सहाय पाण्डेय 'दीप" )